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हाल—ए—दिल जिनसे कहने की थी आरज़ू / साग़र पालमपुरी

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हाल—ए—दिल जिनसे कहने की थी आरज़ू

वो मिले तो हमीं से लगे हू—ब—हू


जिस्म के बन के भीतर ही था वो कहीं

जिसको ढूँढा किये दर—ब—दर , कू—ब—कू


करके इक बात ही रूह में आ बसा

कितनी दिलकश थी उस शख़्स की गुफ़्तगू


फूल यादों के जो सेह्न—ए—दिल में खिले

एक ख़ुश्बू —सी बिखरा गये चार सू


सुर्ख़ चेहरों में ‘साग़र’ ! न ढूँढो मुझे

मेरी ग़ज़लों में है मेरे दिल का लहू