भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हिज्र की पहली शाम के साये / क़तील" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=क़तील शिफ़ाई }} Category:गज़ल हिज्र की पहली शाम के साये दूर ...)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
[[Category:गज़ल]]
 
[[Category:गज़ल]]
 +
<poem>
 +
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
 +
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे
  
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे <br>
+
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे <br><br>
+
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे
  
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात <br>
+
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे <br><br>
+
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे
  
मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की <br>
+
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे <br><br>
+
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे
  
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में <br>
+
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे <br><br>
+
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे
  
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू <br>
+
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे<br><br>
+
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे
  
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को <br>
+
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे <br><br>
+
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे
 
+
</poem>
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"<br>
+
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे <br><br>
+

20:46, 10 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रास्ते सँवलाये थे

जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते उस के नैन भर आये थे

मेरे अन्दर चली थी आँधी ठीक उसी दिन पतझड़ की
जिस दिन अपने जूड़े में उसने कुछ फूल सजाये थे

उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे

कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे

कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे

रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका वो कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे