भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिज्र की शब है और उजाला है / ख़ुमार बाराबंकवी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 12 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिज्र<ref>जुदाई</ref> की शब<ref>रात</ref> है और उजाला है
क्या तसव्वुर<ref> कल्पना</ref> भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन ज़िन्दगी लेकिन
ग़मगुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मज़बूर-ओ-नामुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़<ref>बिजली</ref> की परेशानी
आशियाँ<ref>घर , आशियाना</ref> ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम<ref>मुस्कुराहट</ref> में उसने ढाला है

तेरी बातों को मैंने ऐ वाइज़<ref>उपदेशक</ref>
एहतरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है

शेर नज़्में शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें<ref>लड़खड़ाहटें</ref> मुस्कुराई हैं क्या-क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है "ख़ुमार"
और चारों तरफ उजाला है

शब्दार्थ
<references/>