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"हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
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क़ैद में थी तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
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हां कुछ एक रंज-ए-गिरांबारि-ए-ज़ंजीर<ref>बेड़ीओ के बोझ का रंज</ref> भी था
  
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बिजली इक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
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बिजली एक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या <br>
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यूसुफ़ उस को कहूँ, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
बात करते, कि मैं लब तश्ना-ए-तक़रीर भी था <br><br>
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यूसुफ़ उस को कहूँ और कुछ कहे, ख़ैर हुई <br>
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देखकर ग़ैर को हो क्यों कलेजा ठंडा
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-ता'ज़ीर भी था <br><br>
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पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
नाला करता था वले तालिब-ए-तासीर भी था <br><br>
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हम थे मरने को खड़े, पास आया न सही
हम ही आशुफ़्तासरों में वो जवाँ मीर भी था <br><br>
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आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था  
  
हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही <br>
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पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था <br><br>
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आदमी कोई हमारा दमें-तहरीर भी था  
  
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक <br>
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रेख़ती<ref>शायरी की एक किस्म</ref> के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"  
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रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब" <br>
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कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था <br><br>
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11:10, 27 फ़रवरी 2010 का अवतरण

हुई ताख़ीर<ref>देर</ref> तो कुछ बाइसे<ref>कारण</ref>-ताख़ीर भी था
आप आते थे, मगर कोई इनांगीर<ref>रास्ता रोकनेवाला</ref> भी था

तुम से बेजा<ref>बेकार</ref> है मुझे अपनी तबाही का गिला
इसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर<ref>सौभाग्य की झलक</ref> भी था

तू मुझे भूल गया हो, तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक<ref>शिकारी का झोला</ref> में तेरे कोई नख़चीर<ref>शिकार</ref> भी था

क़ैद में थी तेरे वहशी को वही ज़ुल्फ़ की याद
हां कुछ एक रंज-ए-गिरांबारि-ए-ज़ंजीर<ref>बेड़ीओ के बोझ का रंज</ref> भी था

बिजली इक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब-तश्ना-ए-तक़रीर<ref>भाषण सुनने के तिए उत्सुक</ref> भी था

यूसुफ़ उस को कहूँ, और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-ताज़ीर<ref>दण्ड का भागी</ref> भी था

देखकर ग़ैर को हो क्यों न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले, तालिब-ए-तासीर<ref>प्रभाव चाहने वाला</ref> भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्ता-सरों<ref>सौदाई</ref> में वो जवां-मीर भी था

हम थे मरने को खड़े, पास न आया न सही
आखिर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दमें-तहरीर भी था

रेख़ती<ref>शायरी की एक किस्म</ref> के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था

शब्दार्थ
<references/>