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हेत प्रीति सनेह कौ अंग / साखी / कबीर

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कमोदनी जलहरि बसै, चंदा बसै अकासि।
जो जाही का भावता, सो ताही कै पास॥1॥
टिप्पणी: ख-जो जाही कै मन बसै।

कबीर गुर बसै बनारसी, सिष समंदा तीर।
बिसार्‌या नहीं बीसरे, जे गुंण होइ सरीर॥2॥

जो है जाका भावता, जदि तदि मिलसी आइ।
जाकी तन मन सौंपिया, सो कबहूँ छाँड़ि न जाइ॥3॥

स्वामी सेवक एक मत, मन ही मैं मिलि जाइ।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन कै भाइ॥4॥