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हे ईश्वर! / मनीष यादव

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पश्चिम की ओर निहारती हर साँझ
वेदना से डूबी स्त्री की तरह क्यों बुना?

क्यों गढ़ा मेरे भाग्य में
ह्रदय को हर क्षण कचोटने वाला संवाद!

ज्येष्ठ मास में तपते धाँह से
सूख चुके वृक्ष की भाँति ही
निरंतर शुष्क होती जा रही है मेरी आत्मा

कोलाहल भरे स्वर,
बिखरे रंग-बिरंगे पुष्पों की सुगँध..
सौंदर्य को संवारने की अनुमति दे सकती है

किंतु देह का क्या?
वह तो सुन्न हो चुका
अपने प्रिय के बिछोह में!

जानती हूँ कि कोई निर्जला उपवास भी
नहीं प्रतिस्थापित कर सकेगा मेरा दु:ख।

हस्तरेखाओं की तरफ केंद्रित नजरों से देखती
किसी ज्योतिष की तरह सोचती
सकपका कर उठते ही दीवार पर दे मारती हूँ एक तम़ाचा

मन की खीझ को स्थिर करते हुए
प्रतिदिन छलती हूं खुद को थोड़ा
और कह देती हूँ – यह तमाचा तुम्हारे भाग्य को जड़ा एक श्राप है!

फिलहाल स्कूल से लौट चुकी बिटिया को देख मुस्काती हूँ,
उसके लिए खीर बनाती हूँ,
छत के उसी कोने पर जाकर बैठ उससे बतियाती हूँ

एकदम कलेजे से भींचकर गले लगाते हुए
जब वह कहती है –”माँ इधर देखो बहुत अच्छी तस्वीर आ रही”

हे प्रिय!
उस क्षण उस तस्वीर मे मैं तुम्हें कैद पाती हूँ।

अपनी पीड़ा और प्रेम के मध्य धागों से बँधी
केवल और केवल मैं हूँ

इसमें किसी के अनाधिकृत प्रवेश के प्रयास पर
सदैव एक ही उत्तर होगा –

हे ख़ोजी!
पथ रिक्त छोड़ो
अथाह पीड़ा के इस मौन,
शब्दहीन मायाज़ाल से दूर हटो

मेरे गूढ़ रहस्य का कोई सिरा नहीं आएगा
तुम्हारी दृष्टि में,
और न ही आएगा तुम्हारे हिस्से मेरा प्रेम
न्यूनतम इस जीवन अवकाश के उपरांत भी।