भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
छो
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
हर एक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं <br><br>
 
हर एक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं <br><br>
  
जान पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार <br>
+
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार <br>
 
ऐ काश जानता न तेरी रहगुज़र को मैं <br><br>
 
ऐ काश जानता न तेरी रहगुज़र को मैं <br><br>
  
पंक्ति 18: पंक्ति 18:
 
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं <br><br>
 
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं <br><br>
  
लो वो भी कहते हैं कि ये बेनन्ग-ओ-नाम है <br>
+
लो वो भी कहते हैं कि ये बेनंग-ओ-नाम है <br>
 
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं <br><br>
 
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं <br><br>
  
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं <br><br>
 
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं <br><br>
  
अपने पे कर रहा हूँ क़ियास अहल-ए-दहर का <br>
+
अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का <br>
 
समझा हूँ दिल पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं <br><br>
 
समझा हूँ दिल पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं <br><br>
  
 
"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़ <br>
 
"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़ <br>
 
देखूँ अली बहादुर-ए-आलीगुहर को मैं <br><br>
 
देखूँ अली बहादुर-ए-आलीगुहर को मैं <br><br>

05:50, 26 दिसम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: ग़ालिब

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़दूर हूँ तो साथ रखूँ नौहागर को मैं

छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ
हर एक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तेरी रहगुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिये मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बेनंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़ रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगार को मैं

फिर बेख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं

अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं

"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आलीगुहर को मैं