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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं / ग़ालिब

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लेखक: ग़ालिब

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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़दूर हूँ तो साथ रखूँ नौहागर को मैं

छोड़ा न रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ
हर एक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

जान पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तेरी रहगुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिये मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बेनन्ग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़ रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदादगार को मैं

फिर बेख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं

अपने पे कर रहा हूँ क़ियास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं

"ग़ालिब" ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-ए-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आलीगुहर को मैं