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हो सके तो दुख दो / शक्ति चट्टोपाध्याय / सुलोचना

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हो सके तो दुख दो, मुझे दुख पाना अच्छा लगता है
दो दुख, दुख दो — मुझे दुख पाना अच्छा लगता है ।
तुम सुख लेकर रहो, सुखी रहो, दरवाज़ा खुला है ।

आकाश के नीचे, घर में, सेमल के दुलार से स्तम्भित
मैं पदप्रान्त से उस स्तम्भ का निरीक्षण करता हूँ ।
जिस तरह वृक्ष के नीचे खड़ा होता है पथिक, उस तरह
 
अकेले-अकेले देखता हूँ मैं इस सुन्दरता की संग्लिष्ट पताका को ।

अच्छा हो - बुरा हो, मेघ आसमान में फैल जाता है
मुझे गले लगाती है हवा, अपनी बाहों में ले लेती है ।
दिल उसे रखता है, मुँह कहता है — 'न रखना सुख में, प्रिय सखी' !
हो सके तो दुख दो, मुझे दुख पाना अच्छा लगता है
दो दुख, दुख दो — मुझे दुख पाना अच्छा लगता है ।
अच्छा लगता है मुझे फूलों में काँटा, अच्छा लगता है, भूल में मनस्ताप —
अच्छा लगता है मुझे सिर्फ़ तट पर बैठे रहना पत्थर की तरह
नदी में है बहुत जल, प्रेम, निर्मल जल —
डर लगता है ।