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अंतहीन / सुलोचना वर्मा

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ये कैसा हुनर है तुम्हारा
कि बहते हुए को बचाकर
सहारा देते हो
और फिर बहा देते हो उसे
उसी झरने में ये कहकर
की वो इक नदी है
और तुम फिर आओगे उससे मिलने
उसका सागर बनकर
फिर ये दूरियाँ ख़त्म हो जाएँगी
ताउम्र के लिए

नदी परेशान रही
जलती रही, सुखती रही
सागर की किस्मत में
नदियाँ ही नदियाँ हैं
उसे परवाह नही
जो कोई नदी उस तक ना पहुँचे
और भी नदियाँ हैं
उसकी हमसफ़र बनने को

एक सदी बीत गयी
नदी के सब्र का बाँध
आज टूट सा गया है
नदी में बाढ़ आया है
आज उसमे आवेग है, उत्साह है
चली है मिलने अपने सागर से
बहा ले गयी अपना सब कुछ साथ

नदी सागर तट पर आ चुकी है
कितना कुछ जानना है, कहना है
तभी सागर ने पूछा
कहो कैसे आना हुआ
जम गयी वो ये सुनकर
कुछ देर के लिए, पर
अंदर की ग्लानि ने फिर से पिघला दिया
नदी ने मौन रहना ही ठीक जाना
सागर के करीब से अपना रुख़ मोड़ लिया
और सोच रही है, ऐसे मिलने से तो बेहतर था
वो अंतहीन इंतज़ार, जो उसे अब भी रहेगा