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अतिक्रमण / योगेंद्र कृष्णा

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उसकी रगों में
निर्बंध बह रहा हूं
मैं समुंदर के किनारों की तरह

बंजारी उन हवाओं के साथ
दिन के उजाले में रची
उन साजिशों की तरह

निरंतर उठते उस ज्वार की तरह
पहाड़ की ऊंचाइ से गिरते
उस जल-प्रपात की तरह
जो अपनी हदों को पार कर
लौट आता है हर बार
अपने ही वजूद में

एक बार फिर से
खुद के वजूद के
अतिक्रमण को तैयार...