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अन्तर्द्वन्द्व / ईशनाथ झा

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अन्तरमे हाहाकार भरल
नहि वाणीमे साहस ओ बल,
बनि श्रावण घन झरझर झरझर
अछि बरसि रहल दृग-युग अविरल।

भए मूक बहुत आघात सहल,
नहि हृदय बीच किछु रुधिर रहल,
बल-पौरुष सभ निर्मम लूटल,
नहि जीवन अछि, तन अछि केवल।

हा! केहन कलुषमय नीति कुटिल,
मुखपर मधु, अन्तर गरल भरल,
चिर-प्रभुदित कुसुमित नन्दनवन,
की हेतु एखन उजड़ल उपटल।

नित अर्थ पिशाचक क्रीडासँ
कए रहल विश्व करुणा-क्रन्दन,
निज सुख विलासहित दीन जनक
कए रहल सबल शोणित शोषण।

भए जाए दुःखसँ तन दुर्बल,
नहि आत्मभाव किछु हो विह्वल,
लखि पड़ए अतीतक दर्पणमे
प्रतिविम्ब केहन सुन्दर उज्ज्वल।

अछि सुखित वायु, गिरि-निर्झर जल,
ओ विहगक दल करइत कल कल,
नहि पिंजरमे बान्हल, पकड़ल,
हो सुखित जकर पदमे शृंखल।

की बिसरि गेलहुँ ओ स्वर्णिम दिन?
छल जखन सुखद स्वच्छन्द पवन,
हृत्कलिकामे स्वातन्त्र्य सुरभि,
ओ खड्ग हमर करमे भूषण।

मन कहए जलधिमे डूबि मरू,
गिरि वरक शिखरसँ कूदि पडू,
अभिमान, किन्तु कहि रहल सतत,
की भीरु बनब? करवाल धरू।

की केहरि-शिशु केहनो निर्बल,
नहि कूदि पड़ए गजवर शिर पर?
निज जन्मसिद्ध अधिकार हेतु
यदि मरब, मरब, नहि बनब अमर।

हिंस्रक प्रति हिंसा धर्म हमर,
थिक उचित करब शठता शठपर
मुखरित करु सहसा उतरि समर
हरहर शंकर, बमबम शंकर॥