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अप्रत्याशित सुख / शलभ श्रीराम सिंह

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अभी-अभी चली गई है ट्रेन !
कानों में पानी की तरह
रह गई है सीटी की आवाज़ !
ज़रूरत से ज़्यादा सामान लेकर
सफ़र करने के जुर्म में
रात भर मुसाफिर खाने में क़ैद रहना होगा !

सुबह समाचारपत्रों के मुखपृष्ठ पर
टूटेगा कोई पुल !
स्थगित यात्रा की पीड़ा
अप्रत्याशित सुख में बदल जायेगी !
(१९६६)