भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आईने का हर टुकड़ा / रेखा राजवंशी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:35, 22 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा राजवंशी |संग्रह= }} Category:गज़ल <p...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आईने का हर टुकड़ा, आंसू बहा रहा है ।
भूला हुआ फ़साना फिर याद आ रहा है ।
बरसा नहीं था बरसों, बादल भरा हुआ था
बेबाक बारिशों में अपनी नहा रहा है ।
तरसे जो चांदनी को, वो लोग भी अजब हैं
अब चाँद मिल गया तो, उनको जला रहा है ।
ताबूत में दबाकर, रख दी थी जो तमन्ना
किसका ख्याल उसमें हलचल मचा रहा रहा है ।
उसने की आशनाई, उसने की बेवफाई
फिर क्यों मुझे ज़माना कातिल बता रहा है ।