भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आओ, घर लौट चलें / विनोद निगम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:09, 23 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद निगम }} {{KKCatNavgeet}} <poem> और नहीं, भीड़ भरा यह सूनाप…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

और नहीं, भीड़ भरा यह सूनापन
आओ, घर लौट चलें, ओ मन !

आमों में डोलने लगी होगी गँध
अरहर के आस-पास ही होंगे छँद

टेसू के दरवाज़े होगा यौवन !

सरसों के पास ही खड़ी होगी
मेड़ों पर, अलसाती हुई बातचीत
बँसवट में, घूमने लगे होंगे गीत

महुओं ने घेर लिया होगा, आँगन !

खेतों में तैरने लगे होंगे दृश्य
गेहूँ के घर ही होगा अब भविष्य

अँगड़ाता होगा खलिहान में सृजन !
आओ घर लौट चलें, ओ मन !