भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आल्या के लिए / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:05, 22 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.

मालूम नहीं - कहाँ तुम हो और कहाँ मैं ।
पर गीत हैं वही पुराने और चिन्‍ताएँ भी वही पुरानी ।
उसी तरह के तुम्‍हारे साथ दोस्‍त !
उसी तरह के तुम्‍हारे साथ अनाथ !

बेघर, अनाथ, अपनी नींद खोए हुए
हम दोनों बहुत प्रिय लगता है होना साथ
दो पक्षी हम उठते ही गाने लगते हैं
दो घुमक्‍कड़ दुनिया के हाथों पलते हुए ।

2.

छोटे-बड़े हर तरह के गिरजाघरों में
भटकती आ रही हैं हम दोनों
हम दोनों भटकती आ रही हैं
दरिद्र, धनी हर तरह के घरों में ।

क्रेमलिन की दीवारों को देखकर
कहा था मैंने कभी - इसे खरीद डाल !

सोई रह निश्चिंत,
ओ मेरी ज्‍येष्‍ठ डरावनी सन्तान,
जन्‍म से ही तेरा अधिकार है क्रेमलिन पर ।

3.

जिस तरह मिट्टी के नीचे
कच्‍ची धातु से दोस्‍ती रखती है घास --
सब कुछ दिखाई देता है दो उजले गढ़ों को
इस विराट अथाह आकाश में ।

सिबिल्‍ल! बताओं, मेरी सन्तान को
क्‍यों मिली है नियति इस तरह की ?

क्‍यों मिली है नियति इस तरह की
आखिर उसे पूरी शताब्‍दी क्‍यों लगेगी
रूसी धरती और रूसी नियति प्राप्‍त करने में?