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आवऽ हे प्रियतम, आवऽ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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आव ऽ हे प्रियतम आवऽ
तू नया-नया रूप से
रोज हमरा प्राणन में आवऽ
तू हमरा गंध में आवऽ
तू हमरा रंग में आवऽ
तू हमरा गीत-गान में आवऽ
तू हमरा अंग-अंग में
पुलकित करे वाला
छुअन बन के आवऽ
आवऽ तूं हमरा निर्मल-उज्जवल शरीर में
अपना सुंदर स्निग्ध प्रशांत रूप में
आवऽ आवऽ हो विचित्र परिधान में।
आवऽ हमार मर्म के
सुख, दुख में आव
आवऽ हमार नित्य प्रतिदिन के
सब करम में
जब हमार सब करम अवसान होई
तब तू नया नया रूप से
आवऽ हमरा प्राणन में।