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इच्छाएँ / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

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गर्म तवे पर
छुन्न से गिरती
पानी की बूँदों की तरह
मनुष्य की असीमित
असंतृप्त आशाओं में
संतृप्त होती,
कुछ उसी तरह।
हमेशा से कुछ और ज्यादा
पाने की कोशिश
पर इसी में खो गया वह
अपना सर्वस्व।
नहीं संभलता है फिर भी
ठोकर खाकर
उठता है,
बढ़ता है, फिर
अगली ठोकर खाने को।
असंतृप्त इच्छाओं की
इस लालची दुनिया में
चला जा रहा है
अनवरत… अकेले...
निरन्तर अकेले।