भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इधर उधर जो चराग़ टूटे पड़े हुए हैं / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:46, 20 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> इधर उधर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इधर उधर जो चराग़ टूटे पड़े हुए हैं
सलाम इनको, ये आंधियों से लड़े हुए है

दिखा रहे है हमें जो, अपना फुला के सीना
हमें पता है ये किस के बल पर खड़े हुए हैं

गले मिलने की सुलह की हो पहल किधर से
अभी तो दोनों ही अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं

हक़ीक़तें सब दबी हुई हैं इन्हीं के नीचे
सियासी लोगों ने ऐसे किस्से घड़े हुए हैं

दिखाई देने लगे हैं रिश्ते तमाम बोने
अभी तो साहब कमा के दौलत बड़े हुए हैं