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उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा / ‘शुजाअ’ खावर

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उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा
कि इससे तो अच्छा हूँ मैं बेउड़ा

किसी दिन अचानक क़रीब आ के तू
तसव्वुर में मेरे परखचे उड़ा

अभी तक नज़र मैं है मेरा वुजूद
तख़य्युल ज़रा और नीचे उड़ा

जिसे सब समझते थे बे-बालो-पर
वही इक परिंदा क़फ़स ले उड़ा

‘शुजा’ आँधियों कि करो फ़िक्र तुम
वो आयी सहर और मैं ये उड़ा