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एक गीत यह परवशता का / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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दिवस-रैन
संघर्ष चल रहे
कभी मंच पर
कभी खेत पर
लगी पटकनी इसकी उसकी
कभी नदी में
कभी रेत पर
देवालय की बात फिसलकर
शौचालय पर टिक जाती है
यहीं हमारी चपल सियासत
बस चुटकी में
पिट जाती है
सड़कों से लेकर
संसद तक
शीश झुका है
मानवता का!

कहाँ-कहाँ उलझे हैं मसले
कहाँ-कहाँ जाकर सुलझायें
भूखे पेट उघारी पीठें
किस अंधे को जा दिखलाएँ
सुनें भागवत
भाषण गाएँ
इसकी टोपी उसके सिर पर
पूँछ हिलायें तलवे चाटें
रहें सीखते यस सर! नो सर!!
करते रहे गान हम उनकी
कर्म-कुकर्मी
पावनता का!

फिर से एक पितामह लेटा
शर-शैया पर सोच रहा है
पाँसे शकुनी के ही जीते
राजधर्म क्यों पोच रहा है?
धर्म राज हारेंगे कब तक
कब तक
सत्य छला जायेगा
सिंहासन का
यह माया-मृग
और कहाँ तक भटकाएगा?
कब जागेंगे सुप्त जनार्दन
जागेगा
मानस जनता का?