भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ वासंती पवन / प्रदीप शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:02, 14 जून 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ सारा गांव
तुम्हारी राह तक रहा
ओ वासंती पवन! तुम्हारा ध्यान किधर है

धूप मुंडेरे पर बैठी
कुछ सहमी सकुचाई
पंख फुलाकर गौरैय्या
आँगन में फिर आई
पुरवाई में अभी
ज़रा सा है तीखापन
और सबेरे की आँखों में थोड़ा डर है

वस्त्र उतारे पेंड़ों ने
सब हुए दिगंबर से
ओस बुनी झीनी चादर
आई है अम्बर से
नए पात के गात
अभी बस झाँक रहे हैं
कानन का सब रंग अभी तक धूसर है

पीलेपन के धब्बे से
कुछ हैं सिवान में
आग अभी बस सुलगी है
टेसू वन में
कामदेव के बाण
निकालो तूणीरों से
आ जाओ अल्हड़ बसंत खाली घर है

आओ सारा गांव
तुम्हारी राह तक रहा
ओ वासंती पवन! तुम्हारा ध्यान किधर है?