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कभी यह ज़िन्दगी अच्छी- भली भी गुज़री थी / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर

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कभी यह ज़िन्दगी अच्छी- भली भी गुज़री थी
हमारे होंटो से या'नी हँसी भी गुज़री थी

अभी सुकूत है सेहरा है धूल उड़ती है
इन्ही दो आँखों से पहले नदी भी गुज़री थी

तमाम लफ़्ज़ों की सरगोशियाँ सुनीं शब् भर
सदाएँ देती हुई शाइरी भी गुज़री थी

हर एक राह में हर लहज़ा ढूँढता हूँ मैं
यहाँ से इश्क़ की सँकरी गली भी गुज़री थी

मुझे ही बात नहीं करनी थी कोई वर्ना
मेरे क़रीब से कल ज़िन्दगी भी गुज़री थी

जहाँ पे ज़िन्दगी बैठी है पाँव फैलाकर
उसी गली से कभी ख़ुदकुशी भी गुज़री थी

अभी तो सिर्फ़ गुज़रती है मुझ पे तन्हाई कभी मुझी से तुम्हारी कमी भी गुज़री थी