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कश्तियाँ डूब रही हैं कोई साहिल लाओ / जमुना प्रसाद 'राही'

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कश्तियाँ डूब रही हैं कोई साहिल लाओ
अपनी आँखें मेरी आँखों के मुक़ाबिल लाओ

फूल काग़ज के हैं अब काँच के गुल-दानों में
तुम भी बाज़ार से पत्थर के अनादिल लाओ

एक आवाज़ उभरती है पस-ए-मंज़र-ए-ख़ूँ
ऐ उजालो मेरी तस्वीर का क़ातिल लाओ

मुड़ के देखोगे तो पत्थर से बदल जाओगे
अब तसव्वुर में न छोड़ी हुई मंज़िल लाओ

रौशनी है मेरी वीरान-निगाही का सबब
अब न चेहरा कोई सूरज के मुमासिल लाओ