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कह सकोगे? / शैलजा पाठक

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मैं अनुभवों को पैना कर रही हूँ
मैं दुर्गम रास्तो पे खाली पैर चल रही हूँ
चुभते है कुछ नियम काँटों से
दरारों को पाटने की कोशिश कर रही हूँ

तुम्हारे हिस्से का सह रही हूँ
अपने हिस्से का नही कह रही
मैं तुम्हारी चाहरदीवारी में
तुम्हारे लिए ही रह रही हूँ

आपातकालीन स्थितियों में
मैं बाहर जाया करती हूँ
सहज ही अपने को भूल कर
तुम्हारे अहंकारो की
परवरिश कर रही हूँ

सोचती हूँ
जिस दर्प से थामा था हाथ मेरा
उसी दर्प से एक बार मेरी आँखों में देखकर
कह सकोगे... मैं तुम्हें रानी बनाकर रखूँगा...