भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कान्हा के इस देश में / मनोज चौहान

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:27, 15 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= मनोज चौहान }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKRachna | रचनाकार=

             
कान्हा के इस देश में ,
क्यों गौ माता,
इतनी लाचार हो गई,
भिक्षुक बन,
खड़ी है वह,
गाँव और शहर की ,
हर दहलीज पर,
मात्र शांत करने,
उदर के भीतर,
धधकती ज्वाला को,
मगर अक्सर ,
मिलती है उसे धुत्कार,
कभी गृहणी, किसान,
या फिर ,
किसी फल और सब्जी,
बिक्रेता से l

माता का दर्जा देकर जिसे,
हम करते है गर्व,
अपनी संस्कृति पर,
मृत्युशैया पर पड़े मानव से,
करवाते हैं गौ दान,
इस उम्मीद में ,
कि तारेगी उसे वह,
भव सागर से l


जब तक देती है दूध वह ,
पाली जाती है नाजों से,
जब अक्षम हो जाती है,
देह उसकी ,
तो कर दी जाती है मुक्त ,
घर के बंधे खूंटे से,
कब तक इंसान आखिर,
प्रमाण देता रहेगा,
यूँ ही ,
स्वयं के ,
स्वार्थी और कपूत होने का l

गल्ली, सड़कों,
और चौराहों पर,
भटकने और,
जीवन यापन को,
मजबूर है वह,
और जब कोई ,
शराबी या अफीमची,
सरफिरा ट्रक ड्राईवर,
कर जाता है उसे चोटिल,
तो असहाय सी,
पड़ी रहती है वह,
सड़क के,
एक किनारे पर l

भूख और प्यास से,
बिलखती,
उपचार के अभाव में,
नासूर बन चुके,
संक्रमित घाव,
और गंध छोड़ती देह,
कर देती है बाध्य,
नाक ढांपने के लिए,
राहगीरों को l


रुग्न काया,
एक अंतराल के बाद,
क्षीण कर देती है,
उसकी जिजीविषा,
करुणामयी नेत्रों से,
देखती रहती है,
कह रही हो मानो,
हे इंसान !
क्या इसी दिन के लिए,
किया था तेरा पोषण,
अपने दूध से l

और फिर,
जीवन से संघर्ष करते हुए,
हार जाती है वह ,
एक दिन,
आँखें रह जाती है खुली,
मगर,
उड़ चुके होते हैं,
प्राण पखेरू,
दूर कहीं,
अनंत आकाश में