भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ भी हो / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:26, 27 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |अनुवादक= |संग्रह=बन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह

बहुत समय नहीं हुआ
कोई गीत सुनता था
तो रो पड़ता था
कविता पढ़ता
तो आखें नम हो जातीं
किसी को रोता देखता था
तो तड़प उठता था मन
माँ की याद आती थी
तो सिसक उठता था
कई बार अकेले बैठे-बैठे
बहने लगते थे आंसू

अचानक इतने खँजर
पीठ में आ घुसे एकदम
आँखो ने खँजरों वाले
हाथों को पहचाना
और पत्थर हो गईं

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह...।