भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कुछ विरासत थी कुछ कमाए भी / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:34, 20 फ़रवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद तिवारी |संग्रह=दर्द बस्ती का / विनोद तिवार…)
कुछ विरासत थी कुछ कमाए भी
दर्द अपने भी हैं पराए भी
हम ख़ुदाओं के द्वार तक पहुँचे
और नाकाम लौट आए भी
उनकी नाराज़गी नहीं टूटी
अपने दुखड़े उन्हें सुनाए भी
ज़िन्दगी धूप छाँव थी यारो
हम कि रोए भी मुस्कुराए भी
जिनपे इल्ज़ाम तस्करी का लगा
वो तो ले दे के छूट आए भी
मेरी ग़ज़लों को सुन के महफ़िल में
ख़ुश हुए लोग तिलमिलाए भी