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कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में

और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में


वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर

शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में


ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं

लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में


घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते

ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में


धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे

बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में


जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई

सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में


सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं

पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में


सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था

कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में