भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की / गोपालदास "नीरज"

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:15, 3 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालदास "नीरज" }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ुशबू...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर कोई उन के मकान की

हारे हुए परिंद ज़रा उड़ के देख तू
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की

ज्यूँ लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी
हालत यही है आज कल हिन्दोस्तान की

नीरज से बढ़ के और धनी कौन है यहाँ
उस के हृदय में पीर है सारे जहान की