भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खाते पीते सुरत रमंते / सरहपा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:34, 28 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरहपा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatPad}} <poem> ख...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खाते पीते सुरत रमंते। आलिकुल बहुलहु चक्र फिरंते।
एवं सिद्धि जाइ परलोकहिं। माथे पाद देइ भवलोकहिं।
जहँ मन पवन न संचरै, रवि शशि नाहिं प्रवेश।
तहँ मूढ़! चित्त विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेश।
आदि न अंत न मध्य तहँ, ना भव ना निर्वाण।
एहु सो परम महासुख, ना पर ना अप्पान।