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ग़ैरवाजिब सी बात / वीरू सोनकर

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सन्नाटे के शोर में
कहीं कोई हड़बड़ाहट है
कि मैं जब सुनता हूँ कि कहीं कोई शोर नहीं है
तो चौंकता हूँ

और,

एक खेत देखता हूँ
एक सड़क देखता हूँ
बगल से गुजरती उदास हवा को महसूस करता हूँ
कि उस हवा में जो हलकी नमी के साथ घुली हुई ठण्ड है
वह नहीं है

कि उस सड़क पर जो वाजिब चहल-पहल है वह भी नहीं है
कि वह खेत,
जो अपने सीने पर उगती कोपलों पर मुग्ध है
और मैं उनके फलदार होने तक सहमत नहीं हूँ

कि मैं बस कुछ संभल कर चल रहा हूँ
और समझता हूँ कि मैं एक सतर्क समय में हूँ
कि अपने साथ-साथ चलते उस आकाश में आर-पार फैली
किसी धुंधली नीली चादर में लिपटी एक संभावना को
हो मुग्ध बेतरह देखता हूँ

तो सहमत होता हूँ
कि एक समय आएगा
जहाँ सतर्क होना कोई ग़ैरवाजिब सी बात होगी