भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत तो मेरे अधर पर / राकेश खंडेलवाल

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 24 मई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीत तो मेरे अधर पर रोज ही मचले सुनयने
पर तुम्हारे स्पर्श के बिन रह गये हैं सब अधूरे

मन अजन्ता सा रंगा है चाँदनी के रंग लेकर
फूल के सपने बुने हैं प्रीत की रसगन्ध लेकर
दीप की पावन शिखा से बाँध कर संबंध डोरी
आस्थाओं के सघन वटवॄक्ष से कोंपल बटोरी

पर प्रतीक्षित मंत्र के उच्चार का होकर तुम्हारे
मैं धुंआ बन अगरबत्ती का कहो कब तक बहूँ रे

संदली हर कामना के ताजमहली बिम्ब में खो
रूप की भागीरथी में डूबकर फिर गंधमय हो
सिलसिले कचनार के कुछ,जोड़ कर फिर गुलमोहर से
वादियों में साँझ के भरता रहा हूँ रंग दुपहर से

सरगमी सारंगियों का साथ लेकिन मिल न पाया
जल रहे एकाकियत को ओढ़ कर अब तानपूरे

वॄन्द कानन में खनकती पायलों के सुर सजीले
हाथ में उगते हुए बूटे हिना के कुछ रंगीले
स्वप्न की कजरी नयन को भेजती रह रह निमंत्रभ
और पग को चूमने होता अलक्तक का समर्पण

भोर की उगती हुई पहली किरण, संबल बना कर
धूप को आगोश में ले, स्वर्णमय होते कंगूरे

शब्द की नित पालकी उतरी सितारों की गली में
हो अलंकॄत गंध के टाँके लगाती हर कली में
और पाकर अंजनी के पुत्र से कुछ प्रेरणायें
झूलती अमराई में आकर हिंडोले नित हवायें

दॄष्टि-चुम्बन की प्रतीक्षा में,पलक को राह कर कर
छंद का हर शिल्प कहता आ मुझे तू आज छूरे

अर्चना के दीप की मधुरिम शिखा में जगमगाकर
आरती की घंटियों के साथ सुर अपना मिलाकर
नित नयी उपमाओं की पुष्पांजलि भरता रहा हूँ
कल्पनारत हो निरंतर साधना करता रहा हूँ

रागिनी का हाथ थामे भाव भटका भोर से निशि
प्रश्न लेकिन प्रश्न करता है बता है कौन तू रे

चाँदनी के हाथ में है झील का दर्पण अचंभित
रात की कोमल कली भी रह गई है अर्ध- विकसित
याद के पाटल फिसलती, आँख की शबनम निशाभर
भोर से खामोशियाँ बैठी रही है द्वार आकर

एक छलना के थिरकते मोहजालों में उलझकर
स्वर तकार्जा कर रहा है तुम कहो मैं क्या कहूँ रे