भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चीरहरण / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:50, 11 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेंद्र गोयल |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई नहीं बोलता
तुम्हारे हक में
भरी सभा में
तुम्हारा चीरहरण हो जाता है
तन तुम्हारे पास नहीं
मन तुमने दिया सत्य को
धन कहाँ से होगा
ईमानदारी के चलते
फिर क्या देते?
और किस-किस को, कहाँ तक?
उनकी प्यास बुझने में नहीं आती
उनकी नफरत छुपने में नहीं आती
उनकी बेशर्म आँखें
झुकने में नहीं आती
क्यों पक्ष लंे वो सत्य का?
ईमानदारी का?
जब उन्हें
अपनों को आगे बढ़ाना है
इस खेल में
कुछ को तो शहीद करना होगा
तभी तो
हिमालय पर पग धरना होगा
इसमें क्या नया?
कि हमेशा से
ईमानदारी और सच्चाई का
गला घांेटा गया है
वो हर आवाज दबाई गई है
जो शोषण और अन्याय के खिलाफ
उठाई गई है
हमेशा उन्हें दर-बदर किया है
अपनों को बड़ा घर दिया है
तुम्हारी आवाज
पता नहीं रंग लायेगी या नहीं
पता नहीं भीड़ जुटायेगी या नहीं
या यूँ ही
पागलों की तरह बड़बड़ाते
तपती रेत पर पै जलाओगे
बाँधकर मुट्ठियाँ
क्रोध में बकबकाओगे
और ऐसे ही अकेले
दोपहर की धूप में
जल जाओगे?