भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुभती सूईयाँ / अशोक कुमार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:23, 15 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस मिट्टी में पैदा हुआ था जो करोड़ों साल चट्टानों के सूई की नोक बराबर चूरे में बदलने से बनी थी
उस मिट्टी का बना था जो हजारों साल पहले गणतंत्र की मूर्तियाँ गढ गयी थी
सूईयों की नोक से पोंछी गयी मिट्टी से
उस मिट्टी से पनपा था मैं जो नीति-अनीति की सूई की नोक के संकर्षण को राजनीति तक खींच लायी थी

नीति-अनीति बुन रहे थे एक मजबूत विस्फारित जाल एक सूई की नोक को सम्भालने के लिये
सूई की नोक जिसे कभी संभाल न सका कोई लघु या विशाल साम्राज्य
और सूईयों की जमीन पर चुभती नोक पर लड़ी गयीं कई रक्तरंजित लड़ाईयाँ
नीतियाँ-अनीतियाँ टिक गयी थीं राजनीति बन कर
उन सूईयों की नोक से कुरेदी गयी जमीन पर।

वे कोई पासे के खेल-खेल रही थीं खतरनाक और भयावह
जहाँ सूईयों के जमीन पर कुरेदे चिह्न ज़्यादा अहम थे
एक स्त्री के जिस्म और उस पर लपेटे गये कपड़ों से
नीतियाँ-अनीतियाँ समय के सबसे बड़े और महान खण्ड में
एक कुचक्र रच रही थीं

और तब से जमीन पर नापी गयी सूईयों की नोक ही चुभती थीं दिल में
सूईयाँ सभ्यता की फटी आस्तीन सिल रही थीं
सूईयाँ अपनी नोक से टूटे इंसानियत के बटन टाँक जाती थीं
सूईयाँ गिर जाती थीं जब भी जमीन पर अपने नोक के बल
सभ्यता के जिस्म पर गड़ती थीं
और स्याह निशान छोड़ जाती थीं
सूईयाँ वाण-शैय्या सिरजती थीं
और चुभ रही थीं।