भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 21 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:49, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौक्तिकदाम

कदंब प्रसूनन सौं सरसात। बिलोकि प्रभा पुलके जनु गात॥
मरंद झरैं चहुँधाँ सब फूल। बहाइकैं आँसु तजैं मनु सूल॥

भावार्थ: कदंब फूलों से सुशोभित हो रहे हैं; उनके पुष्पों पर ‘श्वेत अंकुर’ ऐसे भासित होते हैं मानो अकृत्रिम शोभा देखकर उनको रोमांच हुआ है। चारों तरफ पुष्प जो मकरंद गिरा रहे हैं, सो मानो महाराज ऋतुराज के बहुत काल तक दर्शन न प्राप्त होने के संताप को आँसू के द्वारा हृदय से निकाले देते हैं।