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छंद 262 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(मुसकान-वर्णन)

बिकसेऊ प्रसूनन तै रस के मिस, आँसू सदाँ ढरकेई रहैं।
द्विज-देव लखैं मन संतनहूँ के, अनंत कुढ़े करकेई रहैं॥
‘द्विजदेव’ जू सारद-चंद्रिका जानि, चकोर चहूँ परकेई रहैं।
मुसुकाँनि-बिलोकत वा तिय की, मुकुता-लर मैं लरकेई रहैं॥

भावार्थ: भगवती वाग्वाणी कहती हैं कि श्री ‘रासेश्वरी’ की ‘मृदु मुसकान’ के जितने भी उपमान हैं, जैसे-प्रफुल्लित, कुसुम-समूह आदि, वे उस मुसकान की योग्यता न पाकर मकरंद के ब्याज से अद्यावधि अश्रुपात करते हैं। हास का दूसरा उपमान योगियों का विमल चित्त है, सो भी सहस्रों वर्ष पर्यंत ‘आदि-ज्योति परब्रह्म’ के प्राप्त न होने से कुंठित और दुःखित रहता है। हे द्विजदेव! शरद चंद्रिका को देखते हुए भी उसका निरादर कर चकोर अर्थात् चंद्र-चंद्रिका के परम तत्त्वविद् चकोरों ने इसके सामने उसका परित्याग किया तो अब भी क्या चंद्रिका में मृदुहास की समता की योग्यता बाकी रही? यानी कदापि नहीं; अब रही मुक्तावली सो समता पाने के अर्थ अपना हृदय छिदवाकर लड़ियों में सदैव लटकती रहती है तब भी समता नहीं कर पाती।