भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छटपटाहट / वाज़दा ख़ान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |संग्रह=जिस तरह घुलती है काया / वाज़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टूट-टूटकर पिघल रहे हैं
कहीं दूर शिखर
बेआवाज़ / निःशब्द

कोई नहीं जान पाएगा उनके
अन्तस में उपजी पीड़ा को
कोई नहीं जान पाएगा उस समुद्र
की छटपटाहट को जो सिर पटकता
है तट पर बिखरी चट्टानों पर

मगर उसे वापस मझधार में
जाना होता है

लहरें गिनती रहेंगी युग, होता
रहेगा सृजन, घूमती रहेगी पृथ्वी
धुरी पर, छितराए
मेघ-सी बिखरती रहेंगी
संवेदनाएँ कहीं, जूझता रहेगा
स्वत्व देह में घूमते भँवर-सा

भीगती रहेंगी इच्छाएँ सावन में
बौछारों-सी, आते रहेंगे चक्रवात
डोलता रहेगा सागर ज्वारभाटा के
बीच, हिमनद मिलते रहेंगे पहाड़ों से

इसी क्रम में अश्व-सा दौड़ता कालचक्र
शिखरों से टकराकर, पृथ्वी पर
गुज़रकर, लहरों के संग
भागता रहेगा निरन्तर...

कभी-कभी गूँजती रहेगी
एक ध्वनिऽ...ऽ...ऽ... अनहद नाद-सी--
तोड़ना था तो जोड़ा क्यों था ?