भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे / इफ़्फ़त ज़रीन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:44, 1 मई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इफ़्फ़त ज़रीन }} {{KKCatGhazal}} <poem> ज़ेहन ओ द...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे
दूर तक साहिल पे दिल के आबलों का अक्स था
कश्तियाँ शोलों की दरिया मोम के बहते रहे
कैसे पहुँचे मंज़िलों तक वहशतों के क़ाफ़िले
हम सराबों से सफ़र की दास्ताँ कहते रहे
आने वाले मौसमों को ताज़गी मिलती गई
अपनी फ़स्ल-ए-आरज़ू को हम ख़िज़ाँ कहते रहे
कैसे मिट पाएँगी 'ज़र्रीं' ये हदें अफ़कार की
टूट कर दिल के किनारे दूर तक बहते रहे