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जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं / वर्तिका नन्दा

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कुछ शहर कभी नहीं सोते
जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोतीं नहीं|
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊंघती हुई रातों में भी

कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुंघरूओं के छनकते हैं वो
भरते हैं कितने ही आंगन
कुछ सुबहें भी कभी अंत नहीं होतीं
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहां कोई किरण

इतनी जिंदा सच्चाइयों के बीच
खुद को पाना जिंदा, अंकुरित, सलामत
कोई मजाक है क्या?