भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे / शकेब जलाली

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:47, 22 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकेब जलाली |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ शे’र

जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे
मुझपे माइल बकरम हैं तो दिले दरिया दे

ख़लिश-ए-ग़म से मेरी जाँ पे बनी है जैसे
रेशमी शाल को काँटों पे कोई फैला दे

००

देख ज़ख़्मी हुआ जाता है दो आलम का खुलूस
एक