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तरंगिणी / ज्ञान प्रकाश सिंह

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निस्तब्ध निशा के अंचल में
तारा गण अंकित पट लिपटी,
युग तट बंधों के ओट छिपी
कलनाद किये बहती जाती।

कभी चक्र में, कभी वक्र में
लहराती मुड़ती बलखाती,
ऋजु रेखा में सरला बनकर
मंद मंद मुस्काती चलती।

साथ साथ में जलचर चलते
सैकत कण सहचर से चलते,
खंडित प्रस्तर करतल करते
तटिनी के संग बहते जाते।
 
सुगम सपाट धरा के ऊपर
मंद व्यवस्थित चरण बढ़ाती,
ढाल सतह पर संभल न पाती
लहराती द्रुत गति से जाती।

कभी सिमटती कभी फैलती
आकर निकट, दूर हट जाती,
तरुणी तरंगिणी मदमाती
आँख मिचौनी खेला करती।

विजन मध्य एकांत वासिनी
कभी चौंकती, फिर डर जाती,
सघन झाड़ियों के झुरमुट में
क्षीण रूप धर छिपकर चलती।

दुर्गम पथ पर चलते चलते
उसको जब थकान आ जाती,
सम्भव तो रुकना नहीं किन्तु
मध्यम गति से बहने लगती।
  
जैसे कुछ शांत समय मिलता
नाना विचार उर में उठते,
जो बाल सखाओं संग बीते
वे मनभावन दिन याद आते।

                ***

“मैं अल्प वयस की बाला थी
गिरि प्रांगण में घूमा करती,
चिंता रहित समय आनंदित
छपछप कर स्वछन्द विचरती।

भाँति भाँति के विटप वहाँ थे
कुछ छोटे थे, कुछ ऊँचे थे,
उन पर हरित लतायें लिपटीं
पवन वेग से झूला करतीं।
 
गिरि पर उगी वनस्पतियों में
गोह, महोख, नेवले रहते,
खरहे रहते , तीतर रहते
कछुए रहते, गिरगिट रहते।

काँटेदार झाड़ के झुरमुट
बहुतायत में उगे हुए थे,
सर्प और वृश्चिक जीवों के
शरण स्थली बने हुए थे।
  
शैल शिखर पर हिंसक पशु
गीदड़, हुँडार, लोमश रहते,
ऊपर आसमान में दिन भर
चील गिद्ध मंडराया करते।

बुलबुल, कोयल,चातक, मैना
मधुर स्वरों की रचना करते,
विजन पुष्प सुरभित आकर्षक
ऋतु वसंत का स्वागत करते।

हिरणों के दल गिरि के उपर
इधर उधर चरते रहते थे,
साथ साथ में चीतल सांभर
भय विहीन विचरण करते थे।

जब पर्वत तपने लगता था
ग्रीष्म काल की दोपहरी में,
तब सब बैठ जुगाली करते
पादप की शीतल छाया में।

अलसाए पशुओं के ऊपर
लघु खग निर्भय बैठा करते,
परजीवी कीटों को खाते
जो पशु के रोंमों में रहते।
  
वर्षा काल मेघ नभ छाते
अंचल दृश्य मनोहर लगते,
घन गर्जन के स्वर थापों पर
शिखी समूह थिरकने लगते।


शीतकाल की रजनी में जब
निर्जन हो जाता गिरि अंचल,
थलचर नभचर सब सो जाते
पर मैं चलती रहती अविरल।

मेरा अरि कोई वहाँ नहीं
मैं करती थी सबका स्वागत,
पर लगते सबसे आकर्षक
गिरिवासी पशुओं के शावक।
  
वहाँ प्रकृति के दृश्य अनोखे
वे सब चकित निहारा करते,
कभी उछलते, कभी कूदते
कभी कुलांचे भरने लगते।

उनके उछल कूद की क्रीड़ा
मैं अपलक देखा करती थी,
मेरे भी मन में जब भाता
दौड़ लगा खेला करती थी।

प्रातकाल में भुवन भाष्कर
जब हो करके रथ पर सवार,
निकला करते थे यात्रा पर
तब जागृत हो जाता भूधर।

कुछ खगगण अपने नीड़ों में
थे मधुर तान में गीत सुनाते,
कुछ बैठे तरु की डाली पर
अरुणोदय का स्वागत करते।

चौपाये भी तज कर निद्रा
अंगडाई लेकर उठ जाते,
उदरपूर्ति के अभिप्राय से
आहार ढूँढ़ने चल पड़ते।

वह दृश्य मुझे अच्छा लगता
प्राची नभ हो जाता लोहित,
मैं धारण करती स्वर्णिम पट
तज करके अपने श्वेत वस्त्र।
  
गिरि बहुधा निर्जन रहता था
पर यदा कदा संयासी आते,
कभी अकेले, कभी दलों में
आकर धुनी रमाया करते।
  
दुर्गम गिरि पर यात्रा करने
ट्रेकर यहाँ टोली में आते,
जग के कोलाहल से बचने
भ्रमण हेतु नव दम्पति आते।

मैं रहती हूँ गतिशील सदा
चलते चलते हूँ थक जाती,
मन करता है रुक जाने का
लेकिन मैं ठहर नहीं सकती।

तब हृदय व्यथित हो जाता है
व्याकुल हो सोचा करती हूँ,
मैं, काश, मानवी हो सकती
पर विवश स्वयं को पाती हूँ।
 


मेरी हमनामक कितनी ही
मानव बालायें हैं होतीं,
पर है ऐसा विधि का विधान
मैं नहीं मानवी बन सकती।

यदि किसी तरह संभव होता
मैं मानव बाला बन सकती,
वह स्थल अपने बचपन का
अवलोकन करने मैं जाती।

वह समय सुहाना बचपन का
जब भी स्मृति में आता है,
अंतस्तल हर्षित हो उठता
मन आभा से भर जाता है।

है नियम प्रकृति का परिवर्तन
यह सोच हृदय बहलाती हूँ,
मेरे जीवन का यही ध्येय
सब परहित अर्पित करती हूँ।“

   ***

विविध अनुभवों की स्मृतियाँ
निर्झरिणी के उर में आतीं
वह सबके प्रति समवृत्ति लिए
जीवन पथ पर बढ़ती जाती।