भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिहारी चसक न कसक लगी / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:31, 9 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग सोहनी, तीन ताल 5.7.1974

तिहारी चसक<ref>प्रीति की चसक</ref> न कसक<ref>विरह की कसक</ref> लगी।
विषय भोग भसकत<ref>निगलते हुए</ref> वय बीती, माया-मोह ठगी॥
वृथा ठसक निज रूप भुलायो, तन की तपन लगी।
भयो न रसिक तिहारे रसक ो, बुद्धि न प्रीति पगी॥1॥
मन में भरी ठसक जन-जन की, रति में मति न रँगी।
विष सम विषम-व्याधि ही भ्रमसों मधुमयि मोहिं लगी॥2॥
धन-जन ही के लोभ-मोह ने ऐसी बुद्धि ठगी-
तुव रति-रस के रसन हेतु नहीं खरतर तरस जगी॥3॥
साँचो विषय-विराग न जाग्यौ, नाहिन भ्रान्ति भगी।
तुव दरसन की सरस तरस नहिं अजहूँ जिये जगी॥4॥
कहि-सुनि के ही वयस बितायी, वृत्ति न नैंकु रँगी।
जीवन गयो, न किन्तु जीय में जीवन-ज्योति जगी॥5॥
कहा करों, बस ढिल-मिल में ही अबलौं<ref>वही, व्यतीत हुई</ref> वयस वगी।
अब तुव कृपा-कोर की ओरहि उरकी आस लगी॥6॥

शब्दार्थ
<references/>