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तुम ही तो हो… / भास्करानन्द झा भास्कर

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गहरी चेतना की धरातल पर
मेरा तन मन तुझसे लिपटकर
दुनिया की संवेदनशून्यता,
संबंधहीन रीतियों से निपटना चाहता है,
तुम्हारे स्पर्श से
मेरे अन्दर का हर्षाकाश,
इसका हर आयाम
विलक्षण और विराट होता जा रहा है…
मेरे अन्दर की दुनिया
दीवारयुक्त बाहरी दुनिया से कहीं दूर है
जहां कोई भी रस्म ओ रिवाज
अपनी काली नजर
नहीं डाल सकती कभी भी,
मेरे अन्तर्मन में रचित
उस सनातन प्रेम को छू नही सकती…
मेरे पास जज्वात का समन्दर है
मेरे हिम- समान हृदय में
हर पल मेरी शक्तियां,
मेरा अस्तित्व गोता लगा रहा है,
हर डुबकी के साथ
निखरता जा रहा है स्वच्छ,
कोमल, निर्मल, शीतल एहसास!
जितनी बार समझने की कोशिश करता हूं
बस उलझता ही जा रहा हूं
लेकिन इस उलझन में भी
सुलझा हुआ है यह प्यारा एहसास
जो मुझे बहुत कुछ
समझा रहा है-
दुख-सुख सम्मिश्रित जीवन की
इस अबूझ समझ में
मैं अपना सब कुछ जो दुखद है
अब भूलता हुआ महसूस कर रहा हूं
मेरे पास, मेरे सामने, मेरे अन्दर
सिर्फ़ तुम हो, सिर्फ़ तुम
तुम्हारी मौजूदगी, तुम्हारा एहसास,
तुम्हारी धड़कन की आवाज
मुझसे कुछ कह रही है….
सुनसान अन्धेरों में तुम्हारी मौजूदगी
जिन्दगी की रंग विरंगी रोशनी को
असीम ऊर्जा और उजाला देती नजर आ रही है,
मेरी रूह, मेरी मौजूदगी, मॆरी रोशनी में
हर क्षण तुम ही तो हो अनवरत
समस्त कायनात लेकर सतत विराजमान…!