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तुव पद-प्रीति परम धन मेरो / स्वामी सनातनदेव

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राग खमाज, ताल मूल 23.8.1974

तुव पद-प्रीति परम धन मेरो।
बन्यौ रहों पद-पंकज को अलि, रहै तिनहि में नित्य बसेरो।
हुलसि-हुलसि नित रसहुँ प्रीति-रस, तजहुँ न कबहुँ रहहु नित तेरो।
बँधि-बँधि हूँ बन्धन ही चाहों, पलहुँ न तिनसों होउँ अनेरो<ref>उदास, अनमना</ref>॥1॥
तिनहिं त्यागि रिधि-सिधिहुँ न भावै, चलों सदा तिन रति-रस-प्रेरो।
अग-जग के नहिं आस-चाए हिय, तिन की रति जीवन-व्रत मेरो॥2॥
निज-पर की कोउ बात न भासै, तुब करुना ही सम्बल मेरो।
सुरति-सुधा तब रसहुँ निरन्तर, भासै और सबहि उरझेरो॥3॥
अपनो सुख-दुख रहै न अब कछु, तुव सुख ही निज सुख नित मेरो।
ज्यों राखहु त्यों रहों प्रानधन! होउँ न हियमें कबहूँ अनेरो॥4॥
कबहु मिलहु बिछुरहु तुम प्यारे! दोउ में रहै प्रीति-रस तेरो।
प्रीतिमात्र ही है तब लीला, प्रीतिमात्र ही जीवन मेरो॥5॥

शब्दार्थ
<references/>