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दिन आ गये क्वार के / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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दिन
आ गये क्वार के,
तनिक देख तो लेते पार द्वार के।

हिलने लगे
काँस के उजले-उजले मुर्दल,
नदियाँ श्वेत वस्त्र पहने हैं
हरे-हरे ब्लाउज-
सिवार के।

रस-घट बाँधे लम्बी ईखें
गाँठ-गाँठ में, पोर-पोर में,
नैहर से लौटी युवती सी
वासमती की गन्ध महकती
ठौर-ठौर में,

फूल खोंस कर मूँग
झूलती है उमंग में
दाने नये पहन इतराती ज्वार,
कहें क्या रंग ढंग जो-
सुख सिंगार के।