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दिन ढले कंगूरों पर / कुमार रवींद्र

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अनमनी हवाएँ हैं डूबते खजूरों पर
            
एक व्यथा उग आई
ताल के किनारों पर
परछाईं पसर गई
जलकुईं-सिवारों पर
 
मटमैला धुआँ उठा गाँव-गली-घूरों पर
 
गंधहीन साँसों का
एक दिवस और कटा
लंबी इस यात्रा का
थोड़ा दुख और बँटा
 
टिक गईं थकी यादें दिन-ढले कँगूरों पर
 
उतर आईं सडकों पर
रेशम की मीनारें
डरकर खामोश हुईं
खंडहर की दीवारें
 
रंगमहल के सपने लद गए मजूरों पर