भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दृश्य : तीन / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:15, 15 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |संग्रह=कटे अँगूठे...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

  
[दृश्य वही। साँझ होने में थोड़ी देर है। एकलव्य की तन्द्रा टूटती है। देखता है रथ चले आ रहे हैं। उनमें से कौरव और पाण्डव कुमार उतरते हैं। सभी किशोर एवं नवयुवा होने की विभिन्न स्थितियों में। सभी पाण्डव एक ही रथ में आये हैं। एकलव्य का ध्यान भीम और अर्जुन की ओर विशेष रूप से जाता है। भीम बात-बात पर जोर-जोर से हँसता है। उसका अट्टहास और असाधारण रूप से लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ शरीर एकलव्य को बरबस खींचता है। अर्जुन भीम की अपेक्षा कोमल लगता है। चेहरे की रेखाएँ भी कोमल। नाकनक्श का तीखापन और अन्य राजकुमारों से अलग साँवला रंग एकाएक ध्यान खींचते हैं। दोनों किशोरों की मुखाकृति में एक विशेष तेज और आत्म-विश्वास झलकता है। सभी राजकुमार अन्दर चले जाते हैं। अर्जुन और भीम उसी वृक्ष के निकट खड़े होकर वार्तालाप करते हैं, जिस पर एकलव्य बैठा हुआ है]

अर्जुन: नहीं, भाई
यह उचित नहीं है,
भूल न जाएगा दुर्योधन हास्य आपके।

आप बली हैं और श्रेष्ठ भी
किन्तु ...
कुटिल है दुर्योधन,
छल-छद्म करेगा -
सावधान हमको रहना है।

सत्ता उसके हाथों में है -
धर्मराज तो हैं युवराज सिर्फ़ कहने को...
हमें न देना उसे चाहिए कोई अवसर।

भीम (हँसता हुआ): अर्जुन !
तू डरपोक बड़ा है -
हँसने तक से तू डरता है।
ये कौरव हैं मूर्ख-नपुंसक -
इनसे भय खाने की कोई बात नहीं है।
ये कौरव डरते हैं मुझसे।

(कहकर जोर से हँसता है)

अर्जुन: याद नहीं क्या, भाई
आपको वर्षों पहले
दुर्योधन ने ज़हर खिलाकर
गहरे जल में फेंक दिया था -
देव-कृपा थी ...

[भीम के अट्टहास में अर्जुन के शब्द खो जाते हैं। बात करते-करते भीम स्नेह से अर्जुन को बाँहों में समेटता आश्रम के अन्दर खींच ले जाता है। एकलव्य इन दोनों भाइयों के स्नेह से अभिभूत होता है। फिर वह भी पेड़ से उतरकर आश्रम में प्रवेश करता है। आश्रम के प्रांगण में उसके पहुँचते ही कई कौरव कुमार उसे घेर लेते हैं। कोई उसके सिर में लगे पंखों को खींचता है तो कोई उसके चिकोटी काटकर हँसता है। तभी दुर्योधन वहाँ आ जाता है। बलिष्ठ देह का किशोर। चेहरे पर क्रूरता और कुटिलता का भाव। एकलव्य को देखकर वह कठोर स्वर में बोलता है]

दुर्योधन: कौन है तू ?
जानता है क्या नहीं
यह आश्रम गुरु द्रोण का है
और वर्जित है प्रवेश यहाँ आम प्रजाओं का?

[रक्षक को आवाज़ देता है। एक रक्षक भागता हुआ आता है। दुर्योधन उससे आदेशात्मक स्वर में कहता है]

यह अनार्य कैसे घुस आया
इस आश्रम में ?
क्या करते रहते हो तुम सब ?
सूर्योदय के पहले ही तुम दंडित होगे -
इस वन-पशु को शीघ्र निकालो -
भेजो वन में।

[रक्षक बल-प्रयोग से एकलव्य को निकालने का उद्यम करता है। एकलव्य लौह-स्तम्भ सा जमकर खड़ा हो जाता है। दुर्योधन रक्षक से क्ष का प्रयोग करने को कहता है। तभी आचार्य द्रोण प्रवेश करते हैं। वैसी ही काया, पर प्रौढ़ हो गये हैं। दृश्य को देखकर ऊँचे स्वर में बोलते हैं]

द्रोण: ठहरो रक्षक!
यह आश्रम है -
कशाघात की दंड-व्यवस्था
राजभवन की -
आश्रम का आदर्श उसे स्वीकार न करता।

बेटे दुर्योधन !
अपने मन को तुम रोको -
शस्त्र-ज्ञान के साथ
शास्त्र का संयम सीखो।

[एकलव्य आचार्य के चरणों में नमन कर अपना परिचय देता है]

एकलव्य: देव, मैं हूँ एकलव्य
अरण्यवासी।
भीलराज हिरण्यधनु का पुत्र हूँ मैं।
कई वर्षों पूर्व
आते आप जब थे हस्तिनापुर ओर
मार्ग में तब आपने
मुझ पर अनुग्रह था किया।
स्वप्न जो मुझको दिया था आपने
वही लेकर आज आया हूँ यहाँ मैं -
अब कृतार्थ करें, प्रभु, शिष्यत्व देकर।


[द्रोणाचार्य गौर से एकलव्य को देखते हैं। इस नवयुवक में उन्हें वह भील बालक दिखाई दे जाता है, जिसे उन्होंने वर्षों पूर्व शिष्यत्व का वचन दिया था। किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। वे विचार-मग्न हो जाते हैं]

द्रोण: (स्वगत) है वही मुखाकृति
वही तेज पहले जैसा
इसके नयनों में कैसी बिजली कौंध रही-
इसकी सामर्थ्य भुजाओं में उलसी पड़ती-
इसकी साँसों में दृढ निश्चय
परिखा-सा बाँध रहा सारे उद्देश्यों को।

मैं देख रहा इसका भविष्य -
मेरा निर्देशन पाकर यह
निश्चय ही होगा सर्वजयी-
पाण्डव-कौरव सब होंगे इसके पराधीन -
यह अपराजेय...
दिशाओं का स्वामी होगा।

मेरा गुरुत्व
इसे सार्थक होगा अवश्य
पर कुरुसत्ता का क्या होगा ?
मैं वचनबद्ध हूँ उसे प्रतिष्ठित करने को।

वह द्रोण नहीं मैं
जिसने सपना देखा था
आदर्श व्यवस्था का
जिसमें हो
वर्ण-जाति से परे मनुज का नव- उद्भव
सब हों जाग्रत
सब हों समर्थ
हो सही प्रतिष्ठा मानव के सच्चे गुण की।
वह द्रोण
असीमित सूर्योदय का सपना था
पर अस्त हुआ।

यह द्रोण सिर्फ़ है परछाईं उस सपने की।
अपनी सीमाओं में सिमटा
यह मानव के उत्थान-पर्व का
नहीं पुरोधा बन पाएगा।

कुरुसत्ता मुझ पर आश्रित है
मैं कुरुसत्ता पर आश्रित हूँ -
हूँ पराधीन
बंदी अपने ही स्वार्थों में।
स्वीकार न कर पाऊँगा उन आदर्शों को
जिनका यह युवक...
स्वप्न बनकर आया -
है अस्वीकार द्रोण का अब केवल परिचय।

पराधीन सपनों का अंत यही होता है।

[एकलव्य को सम्बोधित करते हैं]

हे भीलपुत्र!
मेरा शिष्यत्व अलौकिक है
हाँ, दुर्लभ है।
है धनुर्वेद दुर्गम-अलभ्य
हर जाति नहीं अधिकारी होती है इसकी
क्षत्रिय से इतर जातियों को इसका निषेध।

सीमाएँ निश्चित हैं सबकी।
तू है वनपुत्र
और जंगल तेरा प्रदेश -
तू उसे छोड़कर व्यर्थ यहाँ तक आया है।

है वर्ण-जाति से बँधा हुआ सारा समाज -
मेरे हैं सारे शिष्य सूर्य-चन्द्रवंशी
तू अन्धकार का पुत्र
देख अपनी काया।


[एकलव्य कुछ कहना चाहता है। उसके चेहरे पर निराशा पुती हुई है। आँखों में आँसू उमड़ रहे हैं। अपमान और अस्वीकार से वह बुरी तरह आहत हुआ है। द्रोण क्षणार्ध के लिए विचलित होते हैं, पर अपने को रोककर और अधिक क्रूर हो जाते हैं]

द्रोण: भीलों के है लिये नहीं यह युद्ध-शास्त्र
है शूरों का...
सभ्यों का...
यह अधिकार सिर्फ़।
तू है असभ्य...
वन का प्राणी
यह पावन विद्या तुझे नहीं दी जा सकती -
मर्यादा के विपरीत मूर्ख तेरा आग्रह।

[कहते हुए द्रोण स्वयं से पराजित-से वहां से तेजीसे प्रस्थान कर जाते हैं। अब तक साँझ ढल चुकी है। दुर्योधन आदि सभी कुमार गुरू के साथ ही चले जाते हैं। आहत एकलव्य अकेला निराश-हताश आकाश में गहराते अँधियारे में एक-एक कर उगते तारों को देखता रह जाता है। दूर से एकलव्य के पिता का स्वर गूँजता आता है]

स्वर: हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमाएँ निश्चित
आदेश हमें है नहीं...
कि हम पर्वत छोड़ें...

मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश
जंगल के पार मिलेंगे केवल तिरस्कार।
हम हैं अरण्य-जन
यही हमारी मर्यादा...

[स्वर रात के बढ़ते अन्धकार में गूँजता जाता है - एकलव्य के चारों ओर एक ध्वनि-वलय बनता है। एकलव्य उस स्वर-चक्र से घिरा डगमग पगों से आश्रम से निकलकर घने अँधेरे में विलीन हो जाता है। उसका विचार-स्वर गूँजता है]

विचार-स्वर: जंगल ही मेरा श्रेय...
वही मेरा आश्रय -
यह तिरस्कार मेरे जीवन का सम्बल हो।
जीवन का सम्बल हो
सम्बल हो
हाँ, सम्बल हो...