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देखते हैं हम तुम्हें हर बार घसगढ़नी / रूपम झा
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देखते हैं हम तुम्हें हर बार घसगढ़नी
है तेरे हसिये में कितनी धार घसगढ़नी
सर पर है बोझा कमर में एक हसिया डालकर
पाँव को रखती ढलानों पर बहुत संभाल कर
हांकती जाती बकरियाँ चार घसगढ़नी
घर-गृहस्थी काम-धंधा कर्ज-पैचों की
दाल-रोटी दवा-पानी बाल-बच्चों की
ढो रही कितने दिनों से भार घसगढ़नी
है मरद घर पर निठल्ला पीटता तुमको
जो भी लाती तू कमा कर छीनता है वो
सह रही कितने दुखों की भार घसगढ़नी
इस जहाँ से आज लड़ना सीखना होगा
आग की मानिंद तुमको दीखना होगा
जिन्दगी होगी नहीं दुश्वार घसगढ़नी