भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से / साहिर लुधियानवी
Kavita Kosh से
77.41.18.69 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 01:09, 4 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिर लुधियानवी |संग्रह= }} देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतन...)
देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से ।
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ।।
कहने को दिल की बात जिन्हें ढूंढ़ते थे हम,
महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से ।
नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार,
क़ीमत नहीं चुकाई गई एक ग़रीब से ।
तेरी वफ़ा की लाश पर ला मैं ही डाल दूँ,
रेशम का यह कफ़न जो मिला है रक़ीब से ।